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भाग्य प्रदायक स्वास्तिक चिन्ह (Hindi & English)

भाग्य प्रदायक स्वास्तिक चिन्ह (Hindi & English)

Om-Shiva

01. स्वास्तिक चिन्ह का महत्व और परिचय?

सनातन हिंदू धर्म में स्वास्तिक का बहुत ही बड़ा महत्व माना जाता है। सनातनी हिंदूजन किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पहले शुभ स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करते हैं। क्योंकि ऐसी हमारी प्राचीन वैदिक मान्यता है कि ऐसा करने मात्र से कार्य सफल हो जाता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल का प्रतीक माना जाता है। स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना गया है। ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ का अर्थ है होना। इसका मतलब स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’ या ‘कल्याण हो’। आइए अब हम जानते हैं कि, आखिर क्या है स्वास्तिक की कहानी? और कैसे शिव-पार्वती के पुत्र भगवान श्री गणेशजी से जुड़ा है इसका रहस्य?

02. स्वास्तिक का अर्थ?

स्वास्तिक का अर्थ होता है कल्याण या मंगल। इसी प्रकार स्वास्तिक चिन्ह का अर्थ हो जाता है कल्याण या मंगल करने वाला। स्वास्तिक अपने आप में एक विशेष तरह की आकृति है, जिसे किसी भी कार्य को आरंभ करने से पहले बनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह शुभ चिन्ह दसों दिशाओं से शुभता और मंगलता से पूर्ण चीजों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। जिससे सर्वकल्याण एवम सर्वलाभ होता है। चूंकि स्वास्तिक को कार्य की शुरुआत और मंगल कार्य में रखते हैं, अतः यह भगवान् श्रीगणेश का रूप भी माना जाता है। ऐसा दृढ़तापूर्वक माना जाता है कि इसका प्रयोग करने से जातक को सम्पन्नता, समृद्धि, शुभता और एकाग्रता की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं जिस किसी पूजा उपासना में स्वास्तिक का प्रयोग नहीं किया जाता है वह पूजा लम्बे समय तक अपना प्रभाव नहीं रख पाती है। क्योंकि हमारी संस्कृति में अगर शुरुआत ही शुभ होगी तो कार्य भी जल्दी पूर्ण होगा और अपनी पूर्णता पश्चात कार्य समृद्धि भी प्रदान करेगा।

03. स्वास्तिक चिन्ह का वैज्ञानिक महत्व?

01. यदि आपने स्वास्तिक के चिन्ह को पूर्ण श्रद्धा एवम सही ढंग से बनाया हुआ है तो उसमें से ढेर सारी सकारात्मक उर्जा हर क्षण निकलती रहती है।

02. यह पवित्र उर्जा वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने में मददगार सिद्ध होती है, जिससे जातक को अपने कार्य के सिद्ध होने में कोई संशय नहीं रहता है।

03. स्वास्तिक की शुभ उर्जा को अगर घर, अस्पताल या दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाएगा तो व्यक्ति रोगमुक्त और चिंता मुक्त रह सकता है। क्योंकि एक सही विद्धिबाई बनाया गया स्वास्तिक हर प्रकार की नकरात्मक ऊर्जा को हराने की क्षमता रखता है।

04. गलत तरीके से बनाया गया या प्रयोग किया गया स्वास्तिक चिन्ह भयंकर समस्याएं भी पैदा कर सकता है। क्योंकि एक सही विधि से बनाया गया स्वास्तिक ही शुभ ऊर्जा प्रदान करता है। इसलिए अज्ञानता से बनाया गया यही शुभ चिन्ह विषम परिणाम भी से सकता है। आइए अब जानते हैं सुख-समृद्धि हेतु स्वास्तिक चिन्ह के 07 दिव्य प्रयोग।

सुख-समृद्धि हेतु स्वास्तिक चिन्ह के 07 दिव्य प्रयोग।

01. पूर्ण परिवार की बरकत हेतु 21 पीपल के पत्तों पर कपूर के तेल और हल्दी से स्वास्तिक बनाइए और लाल मोली से सभी पत्तों को जोड़ते हुए उसका तोरण बनाकर घर के मुख्य लकड़ी वाले दरवाज़े पर लगाएं। यह उपाय प्रत्येक पूर्णमासी को ही शुरू करना है और नया तोरण भी पूर्णमासी तिथि को ही लगाना है।

02. अगर आपके घर/ऑफिस के उत्तर-पूर्वी(ईशान कोण) कोने में मंदिर है तो उत्तर और पूर्वी दीवार पर गंगाजल छिडक़ कर हल्दी, कुमकुम और गुड़ मिलाकर से 11 गुरुवार लगातार स्वास्तिक बनाएं। यह उपाय घर/ऑफिस में धन प्रवाह उत्तम रखेगा। यह उपाय किसी भी गुरुवार से शुरू करें और पहले गुरुवार बनाए हुए स्वास्तिकों पर ही दूसरा बनाते रहें।

03. कार्यों में किसी भी प्रकार से विलंब आ रहा है तो प्रसन्न भारतीय देशी गौमाता जिसका स्वस्थ बछड़ा हो उनके गोबर धन में चंदन का चूरा मिलाकर घर के मुख्य लोहे+लकड़ी वाले द्वार के दोनों तरफ स्वास्तिक का निर्माण करें। अगर कोई गंभीर समस्या भी चल रही है तो इन्हीं गौमाता के बछड़े को गुड़ खिलाएं और गौमाता के सीधे कान में अपनी परेशानी बताते हुए उनका आशीर्वाद ग्रहण करें।

04. लक्ष्मीजी के उत्तम आगमन हेतु घर/ऑफिस के ठीक सामने या देहलीज के दोनों तरफ जहां किसी के भी पैर नहीं पड़ते हों वहां प्रसन्न भारतीय देशी गौमाता जिसका स्वस्थ बछड़ा हो उनके गोबर धन में हल्दी मिलाकर दो स्वास्तिक बनाएं। इन स्वास्तिक देव को अक्षत, सुपारी, मौली और दक्षिणा अर्पण करें। नित्य इन्हें प्रणाम करें। यह उपाय पूर्णमासी से ही शुरू करें और आजीवन पूर्णमासी करते ही रहें। पुराने स्वास्तिक की सफाई हेतु केवल स्वच्छ अवस्था में अपने हाथों का ही प्रयोग करें।

05. पति-पत्नी के आपसी प्रेम और एकता हेतु घर के मंदिर में पीतल की एक प्लेट पर कुमकुम+हल्दी से एक स्वास्तिक का निर्माण करें। इन स्वास्तिक देव पर शिव-परिवार या शिवलिंग को स्थान दें। नित्य देशी खांड मिश्रित जल से इन्हें स्नान कराएं और अक्षत अर्पण करें। स्नान वाले जल को किसी भी पौधे में अर्पण करें। यह उपाय सोमवार से शुरू करें और प्रत्येक सोमवार को नया स्वास्तिक बनाया करें।

06. धन-धान्य एवम् संपन्नता हेतु हर पूर्णमासी से पहले अपनी रसोई की पूर्ण सफाई अवश्य करें। पूर्णमासी की तिथि में प्रातः समय अपनी रसोई में हल्दी से मां अन्नपूर्णा का ध्यान करते हुए स्वास्तिक का निर्माण करें। स्वास्तिक के बीच में एक मिट्टी का देशी घी का दीपक जलाएं और साबुत हल्दी+अक्षत+गेहूं+दाल+गुड़ अर्पण करें। यह उपाय जितना अधिक करेंगे उतना ही अधिक लाभ होगा।

07. जीवन को एक दिशा प्रदान करने के लिए घर के ईशान कोण के मंदिर में एक पीतल के कलश मे गंगाजल भरकर रखिए। इस पीतल के कलश पर कुमकुम/हल्दी से चौतरफा स्वास्तिक बनाएं। इस पीतल के कलश पर पीतल की ही प्लेट/ढक्कन लगा कर रखें रहें। यह कलश आजीवन रखा ही रहेगा।

-गुरु सत्यराम

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Swastik symbol that provides luck (Hindi & English)

Om-Shiva

01. Importance and introduction of Swastik symbol?

Swastik is considered to be of great importance in Sanatan Hindu religion. Before starting any auspicious work, Sanatani Hindus make a sign of auspicious Swastik and worship it. Because it is our ancient Vedic belief that by doing this, the work becomes successful. Swastik symbol is considered to be a symbol of auspiciousness. The word Swastik is considered to be a mixture of ‘Su’ and ‘Asti’. ‘Su’ means auspicious and ‘Asti’ means to be. This means that the basic meaning of Swastik is ‘May it be auspicious’ or ‘May it be good’. Let us now know, what is the story of Swastik? And how is its mystery connected to Lord Shri Ganeshji, son of Shiva-Parvati?

02. Meaning of Swastik?

Swastik means welfare or auspiciousness. Similarly, the Swastik symbol means welfare or auspiciousness. Swastik is a special kind of figure in itself, which is made before starting any work. It is believed that this auspicious symbol attracts auspicious and auspicious things from all the ten directions. Which leads to welfare and benefit for all. Since Swastik is kept at the beginning of work and auspicious work, it is also considered to be a form of Lord Shri Ganesha. It is strongly believed that by using it, the person gets prosperity, prosperity, auspiciousness and concentration. Not only this, the worship in which Swastik is not used, that worship is not able to keep its effect for a long time. Because in our culture, if the beginning is auspicious, then the work will also be completed quickly and after its completion, the work will also provide prosperity.

03. Scientific importance of Swastik symbol?

01. If you have made the Swastik symbol with full faith and in the right way, then a lot of positive energy keeps coming out of it every moment.

02. This holy energy proves to be helpful in protecting the object or person, due to which the person does not have any doubt in the accomplishment of his work.

03. If the auspicious energy of Swastik is used in home, hospital or daily life, then the person can remain disease free and worry free. Because a Swastik made correctly has the ability to defeat all types of negative energy.

04. Swastik symbol made or used in the wrong way can also create terrible problems. Because only a Swastik made in the right way provides auspicious energy. Therefore, this auspicious symbol made out of ignorance can also give adverse results. Let us now know 07 divine uses of Swastik symbol for happiness and prosperity.

07 divine uses of Swastik symbol for happiness and prosperity.

01. For the prosperity of the entire family, make a Swastik on 21 Peepal leaves with camphor oil and turmeric and join all the leaves with red moli to make a toran and place it on the main wooden door of the house. This remedy has to be started on every Poornamasi (full moon day) and a new toran should also be placed on the Poornamasi (full moon day) date.

02. If there is a temple in the north-eastern (Ishaan Kon) corner of your house/office, then sprinkle Gangajal on the north and eastern wall and make a Swastik by mixing turmeric, kumkum and jaggery for 11 consecutive Thursdays. This remedy will keep the money flow in the house/office good. Start this remedy from any Thursday and keep making the second Swastik on the same lines as the one made on the first Thursday.

03. If there is any kind of delay in work, then mix sandalwood powder in the dung of a happy Indian cow who has a healthy calf and make a Swastik on both sides of the main iron + wooden door of the house. If there is any serious problem, then feed jaggery to the calf of this cow and tell your problem in the right ear of the cow and take her blessings.

04. For the good arrival of Goddess Lakshmi, mix turmeric in the dung of a happy Indian cow who has a healthy calf and make two Swastiks right in front of the house / office or on both sides of the threshold where no one’s feet fall. Offer rice, betel nut, mauli and dakshina to this Swastik Dev. Salute him daily. Start this remedy from the full moon day and keep doing it on full moon day throughout the life. Use only your hands in clean state for cleaning the old Swastik.

05. For mutual love and unity between husband and wife, make a Swastika with Kumkum + Turmeric on a brass plate in the temple of the house. Place Shiv-family or Shivling on this Swastik Dev. Bathe them with water mixed with pure sugar candy every day and offer rice. Offer the bathing water to any plant. Start this remedy from Monday and make a new Swastika every Monday.

06. For wealth and prosperity, clean your kitchen completely before every full moon day. On the full moon day, make a Swastika with turmeric in your kitchen in the morning while meditating on Mother Annapurna. Light an earthen lamp of pure ghee in the middle of the Swastik and offer whole turmeric + rice + wheat + lentils + jaggery. The more you do this remedy, the more benefits you will get.

07. To give direction to life, keep a brass urn filled with Gangajal in the temple in the northeast corner of the house. Make a four-sided Swastika on this brass urn with kumkum/turmeric. Keep a brass plate/lid on this brass urn. This urn will be kept for life.

-Guru Satyaram

घर बैठे भगवान शिव को प्रसन्न करें (Hindi & English)

घर बैठे भगवान शिव को प्रसन्न करें (Hindi & English)

Om-Shiva

देवों के देव महादेव – ईश्वरीय कृपा प्राप्ति का वह मार्ग जिस पर चलने वाला साधक सदैव प्रसन्न बना रहता है। क्योंकि जब कोई नहीं था तब भी शिव थे, और जब कोई नहीं रहेगा तब भी शिव रहेंगे। महादेव जिनका ना आदि है और ना अंत। वैसे तो महादेव को प्रसन्न करने के लिए बहुत अधिक उपायों की आवश्यकता नहीं पड़ती है, लेकिन महादेव की प्रसन्नता प्राप्ति में भक्त की शुद्ध भावना ही सब उपायों में आवश्यक एवम श्रेष्ठ मानी जाती है। शिवलिंग पर मात्र जल अर्पण करने से ही महादेव कृपा बरसाने लग जाते हैं।

अपने साधना काल के आरंभिक दौर में मैने यह जाना कि श्रीमद भगवत गीताजी के 18 अध्यायों का नित्य पाठ करना भी महादेव की कृपा प्राप्ति का एक सरल मार्ग है। और जब एक साधक महात्म्य के साथ 18 अध्यायों का अध्ययन करता है तो भक्त के बहुत सारे कष्ट महादेव काट देते हैं। मेरे निजी अनुभव में श्री गीताजी के 18 अध्यायों में से 10वें अध्याय का जो महात्म्य है उसमे एक पक्षी के द्वारा महादेव की स्तुति का बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। अनुभव अनुसार इस स्तुति को जो भी भक्त अपने नित्य पूजन में शामिल कर लेता है तो वह महादेव का कृपापात्र बना रहता है। आप भी इस सरल स्तुति के द्वारा महादेव का पूजन अवश्य कीजियेगा।

घर बैठे भगवान शिव को प्रसन्न करें इस सरल प्रार्थना द्वारा

।।ॐ नमः शिवाय।।

महादेव! आपकी जय हो। आप चिदानंदमयी सुधा के सागर तथा जगत के पालक हैं। सदा सद्भावना से युक्त एवम् अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं। आपके वैभव का कहीं अंत नहीं है। आपकी जय हो। अद्वैत वासना से परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलों से रहित हैं। आप जितेंद्रिय भक्तों के अधीन रहते हैं तथा ध्यान में आपके स्वरूप का साक्षात्कार होता है। आप अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्यमुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकार शून्य, आवरण रहित और निर्गुण हैं।

आपके चरणकमल शरणागत भक्तों की रक्षा करने में प्रवीण हैं। अपने भयंकर ललाट रूपी महासर्प की विष ज्वाला से आपने कामदेव को भस्म किया है। आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से दूर होते हुए भी प्रामाणय स्वरूप हैं। आपको बार-बार नमस्कार है। चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुंबित आपके उन चरण-कमलों की वंदना करता हूं, जो अपार भव-पाप के समुद्र से पार उतारने में अद्भुत शक्तिशाली हैं। महादेव! साक्षात बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते। सहस्त्र मुखों वाले नागराज शेष में भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणों का वर्णन कर सकें। फिर मेरे-जैसे छोटी बुद्धि वाले पक्षी की तो बिसात ही क्या है।

।।ॐ नमः शिवाय।।

– गुरु सत्यराम

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Make Lord Shiva happy at home (Hindi & English)

Om-Shiva

Mahadev, the God of Gods – the path of attaining divine grace on which the devotee remains happy always. Because when there was no one, Shiva was there, and when there will be no one, Shiva will remain there. Mahadev has no beginning and no end. Although, many measures are not required to please Mahadev, but the pure feelings of the devotee are considered essential and best among all measures to please Mahadev. Mahadev starts showering his blessings just by offering water on Shivling.

In the initial phase of my Sadhana period, I came to know that daily recitation of 18 chapters of Shrimad Bhagwat Geeta is also an easy way to attain the grace of Mahadev. And when a devotee studies 18 chapters along with Mahatmya, then Mahadev removes many of the troubles of the devotee. In my personal experience, the greatness of the 10th chapter out of the 18 chapters of Shri Geeta Ji, has a very beautiful description of the praise of Mahadev by a bird. According to experience, any devotee who includes this praise in his daily worship remains blessed by Mahadev. You too must worship Mahadev with this simple praise.

Please Lord Shiva at home with this simple prayer

।।Om Namah Shivaya।।

Mahadev! Victory to you. You are the ocean of nectar of bliss and the protector of the world. You are always filled with good will and are delighted with the waves of detachment. There is no end to your glory. Victory to you. With a mind full of non-dual desires, you are free from the three types of impurities. You remain under the control of the devotees who have controlled their senses and your form is realized in meditation. You are devoid of the title of ignorance, eternally free, formless, disease-free, infinite, devoid of ego, without cover and without attributes.

Your feet are expert in protecting the devotees who surrender to you. You have destroyed Kamadeva with the poisonous flame of the great serpent in the form of your fierce forehead. Victory to you. Even though you are far from direct evidence etc., you are the embodiment of authenticity. Salutations to you again and again. Salutations to you, the master of consciousness and the form of the three worlds. I worship your feet kissed by the best yogis, which are amazingly powerful in helping one cross the infinite ocean of worldly sins. Mahadev! Even Brihaspati himself cannot dare to praise you. Even the thousand-headed serpent king Shesh does not have the intelligence to describe your qualities. Then what is the status of a bird with a small intellect like me.

।।Om Namah Shivay।।

– Guru Satyaram

श्री गणेशजी का पूजन क्यों अनिवार्य है? (Hindi & English)

श्री गणेशजी का पूजन क्यों अनिवार्य है? (Hindi & English)

01. हमारे प्रथम आराध्य श्री गणेशजी

हमारे सनातन धर्म में भगवान श्री गणेशजी को प्रथम पूजनीय कहा जाता है। हमारे यहां कोई भी शुभ मांगलिक कार्य बिना गणेशजी के पूजन किए नहीं किया जाता है। हमारे हिन्दू धर्म में “श्री गणेश” करना ही किसी भी कार्य का शुभारंभ करने का द्योतक माना गया है।

02. क्यों हैं श्री गणेशजी प्रथम पूजनीय?

गणेश जी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि त्रिदेवों के अलावा समस्त देवी-देवताओं द्वारा अग्र पूजनीय होने का वरदान मिला है। इसका जिक्र विभिन्न पुराणों और धर्म ग्रन्थों में आता है। वेदों में भी यज्ञ-हवनादि से पूर्व गणेशजी का आह्वान करने का विधान है। और हवन यज्ञादि को निर्विघ्न सफल बनाने के लिए सर्व प्रथम गणेशजी का पूजन करना ही अनिवार्य बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है कि सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने गणेशजी को अग्रपूज्य और सर्वपूज्य होने का वरदान दिया था।भगवान ने कहा था कि जबतक गणेशजी की पूजा नहीं होगी, अन्य सभी देवी-देवताओं का पूजन भी स्वीकार्य नहीं होगा। पुराणों में उन्हें “विघ्नहर्ता” भी कहा गया है।

03. क्या हमारे पुराणों में भी है उल्लेख?

स्कन्दपुराण में उल्लेख है कि समुद्रमंथन के पूर्व देवताओं ने गणेशजी का पूजन नहीं किया था, तब कालकूट नामक हलाहल विष निकला। और मंथन कार्य में बहुत बड़ा विघ्न उत्पन्न हो गया। तब भगवान शिव ने उस विष को ग्रहण करते समय सभी देवताओं को निर्देश दिया कि जब भी गणेश पूजन के बिना कोई शुभ कार्य किया जायेगा तो विघ्न उत्पन्न अवश्य होगा।

ब्रह्मांड पुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने भी गणेशजी को समस्त देवताओं में अग्रपूज्य होने का वरदान दिया था।
गणेश पुराण और लिंग पुराण में उल्लेख है कि जब त्रिपुर नामक राक्षस के वध के समय विघ्न उत्तपन्न होने लगा तो गणेश जी ने समस्त विघ्नों को हरकर त्रिपुर विजय दिलवाई। तब त्रिदेवों नें उन्हें विघ्नहर्ता और अग्रपूज्य होने का वरदान दिया।

ब्रह्मांड पुराण, लिंग पुराण, और स्कन्दपुराण आदि में उल्लेख है कि विवाह, मुंडन, आदि सोलह संस्कारों, यात्रा, व्यापार, गृह प्रवेश, कृषि कर्म, युद्ध, देवता पूजन, यज्ञ और अनुष्ठानों में जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक सर्वप्रथम श्री गणेशजी का पूजन करता है तो उसकी समस्त मनोकामनाएं सिद्ध होती हैं।

04. क्यों लगाते हैं श्री गणेशजी को सिंदूर?

भगवान गणेशजी को सिंदूर अवश्य चढ़ाया जाता है। उनकी मूर्तियों पर सिंदूर का लेपन किया जाता है। शिवपुराण के अनुसार जब शिवजी के द्वारा गणेशजी का सर काटे जाने के पश्चात हाथी का सर लगाया गया, तब उसमें पहले से ही सिंदूर का लेपन हो रखा था। माता पार्वती ने जब देखा तो वरदान दिया कि पुत्र! तुम्हारे मुख पर सिंदूर का विलेपन हो रहा है, अतः मनुष्यों द्वारा तुम सिंदूर से पूजे जाओगे। गणेश पुराण में भी एक कथा है कि एक बार बाल्यावस्था में ही गणेशजी ने सिंदूर नाम के दैत्य का वध करके उसके रक्त का अपने शरीर पर लेपन कर लिया था। तब से भगवान गणेश सिंदूर वदन एवम सिन्दूरप्रिय के नाम से विख्यात हुए और भक्त उन्हें सिंदूर लगाने लगे।

05. क्यों चढ़ाते हैं श्रीगणेश को दूब?

इस घटना के बारे गणेश पुराण में ही विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। गणेश पुराण की एक कथा के अनुसार एक चांडाली, एक गधा और एक बैल गणेश मंदिर में जाते हैं। अनजाने में ही उनके हाथों से दुर्वा घास गणेशजी की प्रतिमा पर गिर जाती है। जिससे प्रसन्न होकर गणेशजी विमान से उन्हें अपने लोक बुला लेते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार गणेशजी ने बालक रूप में अनलासुर को अपने कंठ में धारण कर लिया था, इससे उनके गले मे तेज जलन होने लगी। तब उस ताप की शांति मुनियों द्वारा इक्कीस दूर्वांकुरों को अर्पण करने पर हुई थी।

गणेश पुराण के उपासना खण्ड में वर्णन है कि मिथिला नरेश जनक के नगर का सम्पूर्ण अन्न भक्षण करने के बाद भी एक कुष्ठ रोगी वेषधारी गणेशजी तृप्त नहीं हो रहे थे। तब त्रिशिरा की चतुर पत्नी विरोचना ने एक दूर्वा में धरती के समस्त व्यंजनों की कल्पना करके गणेशजी को भक्तिपूर्वक भेंट किया। तब कहीं जाकर गणेशजी तृप्त और प्रसन्न हुए थे। इसी प्रकार कौण्डिन्य की पत्नी आश्रया नें भी दूर्वांकुरों द्वारा भगवान गणेशजी को प्रसन्न करने की कथा मिलती है। इस प्रकार से उपर्युक्त कथाएं दूर्वांकुरों के महत्व को बताती हैं। इसीलिए गणेशजी को प्रसन्न करने के लिए दूब चढ़ाने का विधान बना।

उपर्युक्त आलेख में मैंने भगवान श्री गणेशजी के विषय में एक संक्षिप्त जानकारी प्रदान की है। आप को आलेख कैसा लगा? सुधी पाठक जन कृपया कमेंट के ज़रिए ज़रूर बताएं।

धन्यवाद और आभार !

– ऐस्ट्रो ऋचा श्रीवास्तव

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Why is it mandatory to worship Shri Ganesh Ji? (Hindi & English)

01. Our first deity Shri Ganesh Ji

In our Sanatan Dharma, Lord Shri Ganesh Ji is said to be the first to be worshipped. No auspicious work is done here without worshipping Ganesh Ji. In our Hindu religion, chanting “Shri Ganesh” is considered to be the symbol of starting any work.

02. Why is Shri Ganesh Ji the first to be worshipped?

Ganesh Ji has got the blessing of being worshipped first by all the gods and goddesses apart from the Tridevas like Brahma, Vishnu, Mahesh etc. This is mentioned in various Puranas and religious texts. In the Vedas also, there is a rule to invoke Ganesh Ji before Yagya-Havana etc. And to make Havan Yagya etc. successful without any hindrance, it is said to be mandatory to worship Ganesh Ji first. It is mentioned in Brahmavaivart Purana that first of all Lord Vishnu blessed Ganeshji to be the foremost and the most revered. God had said that till Ganeshji is not worshipped, the worship of all other gods and goddesses will also not be accepted. He is also called “Vighnaharta” in Puranas.

03. Is it mentioned in our Puranas too?

It is mentioned in Skanda Purana that before Samudra Manthan, the gods did not worship Ganeshji, then the poison named Kalakut came out. And a great obstacle arose in the churning work. Then Lord Shiva, while consuming that poison, instructed all the gods that whenever any auspicious work is done without Ganesh worship, then an obstacle will definitely arise.

According to Brahmanda Purana, Lord Krishna also blessed Ganeshji to be the foremost revered among all the gods. It is mentioned in Ganesha Purana and Linga Purana that when obstacles arose while killing a demon named Tripura, Ganesha defeated all the obstacles and helped Tripura win. Then the Tridevas gave him the boon of being the destroyer of obstacles and the first to be worshipped.

It is mentioned in Brahmanda Purana, Linga Purana and Skanda Purana that if a person worships Lord Ganesha first with devotion in sixteen rites like marriage, tonsure, etc., travel, business, housewarming, agricultural work, war, deity worship, yagya and rituals, then all his wishes are fulfilled.

04. Why do we apply sindoor to Shri Ganesh Ji?

Sindoor is definitely offered to Lord Ganesh Ji. Sindoor is applied on his idols. According to Shiv Puran, when Ganesh Ji’s head was cut off by Lord Shiva and an elephant’s head was put on it, it was already coated with sindoor. When Mother Parvati saw this, she blessed him that son! Sindoor is being applied on your face, so you will be worshipped by humans with sindoor. There is also a story in Ganesh Puran that once in his childhood, Ganesh Ji killed a demon named Sindoor and applied his blood on his body. Since then, Lord Ganesh became famous by the name of Sindoor Vadan and Sindoorpriya and devotees started applying sindoor to him.

05. Why do we offer grass to Shri Ganesh?

Various references are found about this incident in Ganesh Puran itself. According to a story in Ganesha Purana, a Chandali, a donkey and a bull go to the Ganesha temple. Unknowingly, Durva grass falls from their hands on the idol of Ganesha. Pleased with this, Ganesha calls them to his world in his plane. According to another story, Ganesha in the form of a child had put Analasur around his neck, due to which he started having severe burning sensation in his throat. Then that heat was relieved when the sages offered twenty-one Durva shoots.

It is described in the Upasana section of Ganesha Purana that even after eating all the food of the city of King Janak of Mithila, Ganesha disguised as a leper was not getting satiated. Then Trishira’s clever wife Virochana imagined all the delicacies of the earth in a Durva and offered it to Ganesha with devotion. Then Ganesha became satisfied and happy. Similarly, there is a story of Kaundinya’s wife Aashraya pleasing Lord Ganesha with Durva shoots. In this way, the above stories tell the importance of Durva shoots. That is why the tradition of offering grass to please Lord Ganesha was made.

In the above article, I have provided a brief information about Lord Shri Ganesha. How did you like the article? Dear readers, please do let us know through comments.

Thanks and gratitude!

– Astro Richa Srivastava

हमारे पितर कौन हैं? एक परिचय (Hindi & English)

हमारे पितर कौन हैं? एक परिचय (Hindi & English)

Om-Shiva

परिभाषा-

अक्सर हम अपने पूर्वजों या घर-परिवार के गुजर गए लोगों को “पितर” मान लेते हैं। लेकिन “पितरों” का परिचय एक विस्तृत विषय है। वस्तुतः पितर समस्त लोकों की चौरासी लाख योनियों में से एक योनि है। पितर विभिन्न लोकों में रहने वाली वें दिव्य आत्माएं और सामान्य जीवात्माएं हैं, जिनसे देवता और मनुष्य की उतपत्ति हुई है। पितर देवताओं की तरह ही शक्तिशाली और पुण्यफलदायी होते हैं। संतुष्ट और प्रसन्न होने पर अपने कुल को सुख, समृद्धि, सन्तति, धन और यश प्रदान करते हैं। जबकि अप्रसन्न होने पर सभी प्रकार के सुख छीन भी लेते हैं। इनकी प्रसन्नता के बिना हमें देवताओं और नवग्रहों का भी आशीर्वाद नहीं प्राप्त हो सकता। एक सम्पूर्ण लोक ही पितरों के लिए समर्पित किया गया है।

परिचय-

मनुस्मृति में पितरों के सम्बंध में कहा गया है कि पितर ब्रह्मा जी के पुत्र मनु हैं और मनु के जो अत्रि, मरीचि, पुलत्स्य आदि ऋषि पुत्र हैं, उनके सभी संतानें ही पितृगण कहे गए हैं।

मनुस्मृति में श्लोक है कि-

“ऋषिभ्यः पितरो जाता: पितृभे देवमानवा:।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वे चरं स्थाण्वनुपूर्वश:।।”

अर्थात् , ऋषियों से पितर उत्पन्न हुए हैं। पितरों से देवता और मनुष्य उत्तपन्न हुए हैं। देवताओं से ये सम्पूर्ण जगत निर्मित हुआ है।

पितरों के प्रकार-

मनुस्मृति, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में पितरों की कई श्रेणियां बताई गई हैं। पर मूलतः हम पितरों को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं।

(अ) दिव्य पितर
(ब) पूर्वज पितर

(अ) दिव्य पितर-

दिव्य पितर वें पितर हैं जिनसे देवताओं और मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है। ये सभी बहुत तेजस्वी और देवताओं के समान ही शक्तिशाली होते हैं। देवता भी इनका पूजन करते हैं। ये योगियों के योग को बढ़ाते है और आध्यात्मिक उन्नति देते हैं। इनके लिए विशेष रूप से श्राद्ध कर्म किया जाता है।

दिव्य पितरों के भी सात प्रकार कहे गए हैं-

01. अग्निष्वात- इनकी उत्पत्ति मनु के पुत्र महर्षि मरीचि से हुई है। ये अत्यंत दिव्य और पूज्य हैं। ये देवताओं के पितर माने जाते हैं।

02. बहिर्षद- इनकी उत्पत्ति महर्षि अत्रि से हुई है। ये देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नरों, सर्प, राक्षस, गरुड़ आदि के पितर हैं।

03. सोमसद- सोमसद महर्षि विराट के वंशज हैं। ये साधुओं और साधकों के पितर माने जाते हैं।

04. सोमपा- ये पितर महर्षि भृगु से उत्तपन्न हुए हैं। ये ब्राह्मणों के पितर माने जाते हैं।

05. हविष्मान- ये महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं। इन्हें हविर्भुज भी कहते हैं। इन्हें क्षत्रियों का पितर कहा जाता है।

06. आज्यपा- यह महर्षि पुलत्स्य से उत्तपन्न हुए हैं। इन्हे वैश्यों का पितर कहा जाता है।

07. सुकालि- सुकालि महर्षि वसिष्ठ के पुत्र कहे गए हैं। यह शूद्रों के पितर कहे गए हैं।

उपर्युक्त सात प्रमुख दिव्य पितरों के अतिरिक्त और भी दिव्य पितर हैं। उदाहरण के लिए- “अग्निदग्ध”, “अनाग्निदग्ध”, “काव्य”, “सौम्य” इत्यादि।

(ब) पूर्वज पितर

इस श्रेणी में वें पितर शामिल होते हैं जो किसी परिवार या कुल के पूर्वज हैं, जिनसे कुल या कोई वंश उत्तपन्न हुआ हो। इन्हीं का एकोदिष्ट श्राद्ध, पिंड या तर्पण इत्यादि होता है।

इनकी भी मुख्यतः 2 श्रेणियां हैं।

01. सपिंड पितर
02. लेपभाग भोजी पितर

01. सपिंड पितर-

मृत पिता, दादा, परदादा ये तीन पीढ़ी तक के पूर्वज सपिण्ड पितर कहलाते हैं। ये पितर पिण्डभागी होते हैं।

02. लेपभाग भोजी पितर-

ये सपिण्ड पितरों से ऊपर तीन पीढ़ी तक के पितर होते हैं। जिनका निवास चंद्रलोक से ऊपर पितृलोक में होता है।

उपर्युक्त वर्गीकरण के अलावा “संतुष्ट और असंतुष्ट”, “उग्र और सौम्य पितर”, “ऊर्ध्वगति और अधोगति” वाले पितरों की श्रेणियां भी होती हैं।

उपर्युक्त आलेख में मैनें अपने ज्ञान अनुसार पितरों के बारे में जानकारी दी है। अन्य विद्वानों की राय की भी अपेक्षा है। कृपया कमेंट के ज़रिए अपना दृष्टिकोण अवश्य दें।

धन्यवाद और आभार!

-ऐस्ट्रो ऋचा श्रीवास्तव

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Who are our ancestors? An introduction (Hindi & English)

Om-Shiva

Definition-

Often we consider our ancestors or the deceased members of our family as “ancestors”. But the introduction of “ancestors” is a vast subject. Actually, ancestors are one of the 84 lakh species of all the worlds. The ancestors are those divine souls and ordinary living souls living in different worlds, from which gods and humans have originated. The ancestors are as powerful and virtuous as the gods. When satisfied and happy, they provide happiness, prosperity, progeny, wealth and fame to their clan. Whereas when unhappy, they snatch away all kinds of happiness. Without their happiness, we cannot get the blessings of the gods and the nine planets. An entire world has been dedicated to the ancestors.

Introduction-

In Manusmriti, it is said about Pitras that Manu is the son of Brahma and all the children of Manu like Atri, Marichi, Pulatsya etc. are called Pitragan.

Manusmriti has a verse that-

“Rishibhyah Pitaro Jaata: Pitrbhe Devamanava:|

Devebhyastu Jagatsarve Charam Sthaanvanu Purvasha:||”

That is, Pitras are born from Rishis. Gods and humans are born from Pitras.

This entire world is created from Gods.

Types of Pitras-

Many categories of Pitras have been mentioned in Manusmriti, Padmapuran, Matsyapuran, Brahmavaivart Purana etc. But basically we can divide Pitras into two categories.

(A) Divine Pitras

(B) Ancestor Pitras

(A) Divine Pitras-

Divya Pitras are those Pitras from whom Gods and Humans originated. All of them are very radiant and powerful like Gods. Gods also worship them. They increase the yoga of Yogis and give spiritual progress. Shraddha Karma is specially performed for them.

There are seven types of Divine Pitras-

01. Agnishwat- They originated from Maharishi Marichi, son of Manu. They are extremely divine and worshipable. They are considered to be the Pitras of Gods.

02. Bahishad- They originated from Maharishi Atri. These are the ancestors of Devas, Danavas, Yakshas, ​​Gandharvas, Kinnars, snakes, demons, Garuda etc.

03. Somasad- Somasad is the descendant of Maharishi Virat. He is considered to be the ancestors of sadhus and sadhaks.

04. Sompa- These ancestors are born from Maharishi Bhrigu. They are considered to be the ancestors of Brahmins.

05. Havisman- He is the son of Maharishi Angira. He is also called Havirbhuj. He is called the ancestor of Kshatriyas.

06. Ajyapa- He is born from Maharishi Pulatsya. He is called the ancestor of Vaishyas.

07. Sukali- Sukali is said to be the son of Maharishi Vasishtha. He is said to be the ancestor of Shudras.

Apart from the above mentioned seven major divine ancestors, there are other divine ancestors too. For example- “Agnidagdh”, “Anaagnidagdh”, “Kavya”, “Saumya” etc.

(b) Ancestor Pitras

This category includes those Pitras who are the ancestors of a family or clan, from whom a clan or a lineage has originated. It is for them that Ekodishta Shraddha, Pind or Tarpan etc. is performed.

There are mainly 2 categories of these too.

01. Sapinda Pitras

02. Lepbhag Bhoji Pitras

01. Sapinda Pitras

The ancestors up to three generations like dead father, grandfather, great grandfather are called Sapinda Pitras. These Pitras are Pindbhagi.

02. Lepbhag Bhoji Pitras

These are the ancestors up to three generations above Sapinda Pitras. Whose residence is in Pitralok above Chandralok.

Apart from the above classification, there are also categories of Pitras with “satisfied and dissatisfied”, “fierce and gentle Pitras”, “upward and downward movement”.

In the above article, I have given information about Pitras according to my knowledge. Opinion of other scholars is also expected. Please give your viewpoint through comments.

Thanks and gratitude!

-Astro Richa Srivastava

क्या घर के मुख्य दरवाज़े पर गणेश-लक्ष्मी को स्थान देना चाहिए? (Hindi & English)

क्या घर के मुख्य दरवाज़े पर गणेश-लक्ष्मी को स्थान देना चाहिए? (Hindi & English)

हमारे घरों में प्रायः अनेकों ऊर्जाओं का आना जाना लगा रहता है। जिनमें अच्छी और बुरी दोनों ऊर्जाएं शामिल रहती है। हम सभी यही चाहते हैं कि हमारे घरों में केवल सकारात्मक ऊर्जाएं ही आनी चाहिएं। इसके लिए हम पूर्ण रूप से हमारे घर के मुख्य दरवाज़े पर निर्भर बने रहते हैं क्योंकि मुख्य प्रवेश द्वार एक प्रकार से हमारा रक्षक होता है। इसलिए हम हमेशा ऐसे उपायों को प्रयोग में लाते हैं जिससे हमारे मुख्य दरवाज़े को अत्यधिक मजबूती प्राप्त हो पाए।

मुख्य लकड़ी वाले दरवाज़े की मजबूती के संदर्भ में चोखट का एक अहम योगदान रहता है। चोखट में इतनी अधिक ताकत होती है कि परिवार का कोई भी सदस्य जब उसे लांघता है तो नकरात्मक ऊर्जा बाहर ही रह जाती है। लेकिन यह पहले के घरों में अधिक देखने को मिलती थी। आज के वर्तमान निर्माण को देखा जाए तो घरों में चोखट लगभग गायब हो चुकी है। अब चोखट के नाम पर केवल तिखट रह गई है। अब इसके स्थान पर लोगों ने चांदी की तार लगानी शुरू कर दी है। यह ठीक भी है क्योंकि चांदी धातु की प्रकृति ऐसी है कि कोई भी नकरात्मक ऊर्जा को वह तुरंत ही काट देती है।

अब वर्तमान युग में लोग अपने घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर गणेश-लक्ष्मी को स्थान देते हैं। उनकी भावना बहुत ही पवित्र होती है लेकिन हमें यहां यह भी समझना होगा कि अगर मुख्य दरवाज़े के बाहर आपने किन्हीं भी देवी-देवता को स्थान दिया है तो आपको यह अच्छे से पता होना चाहिए कि उन अमुक देवी-देवता का द्वारपाल होना अति आवश्यक है। अब ना तो लक्ष्मीजी द्वारपाल हैं और ना ही गणेशजी। गणेशजी का सिर कटने से पूर्व वें अवश्य द्वारपाल थें परंतु जब शिवकृपा से उनको नया सिर प्राप्त हुआ तो उनका यह रूप कहीं पर भी द्वारपाल नही बना। आइए कुछ प्रश्नों के माध्यम से इस विषय को और भी अधिक गहराई से समझने का प्रयास करते हैं।

01. क्या घर के मुख्य दरवाजे पर गणेश-लक्ष्मी लगाने चाहिएं?

भगवान श्रीगणेश और माता महालक्ष्मी जी को मुख्य द्वार जो बाहर की तरफ खुलता हो वहां पर स्थान कभी भी नहीं देना चाहिए।

02. क्या भगवान श्रीगणेश और माता महालक्ष्मी जी को घर के अंदर स्थान दे सकते हैं?

जी हां आप भगवान श्रीगणेश और माता महालक्ष्मी जी को मुख्य द्वार जो अंदर की तरफ खुलता हो वहां पर स्थान दे सकते हैं।

03. क्या भगवान श्रीगणेश और माता महालक्ष्मी जी के साथ किसी विशिष्ट दिशा का कोई महत्व है?

भगवान कभी भी किसी भी दिशा से बंधे हुए नहीं होते हैं। बस आप हमेशा यही ध्यान रखें कि भगवान श्रीगणेश आपके साम भाग में ही होने चाहिएं और माता महालक्ष्मी जी आपके वाम भाग में ही होनी चाहिएं।

04. घर के मुख्य दरवाजे पर किन्हें स्थान देना उचित और उत्तम रहता है?

घर के मुख्य दरवाजे जोकि बाहर की तरफ खुलता है उसकी उपरी दीवार पर आप अपनी श्रद्धा अनुसार बैठी हुई अवस्था में पंचमुखी हनुमानजी या पंचमुखी गणेशजी को ही स्थान दीजिए।

05. घर के मुख्य दरवाजे पर कैसा रंग होना चाहिए और मुख्य दरवाजे और अंदर की दीवारों की ऊंचाई कितनी होनी चाहिए?

घर के मुख्य दरवाजे पर सफेद या कोई भी हल्का रंग होना ही उत्तम रहता है। घर के मुख्य दरवाजे की ऊंचाई कम से कम 7 फुट और अंदर की दीवारों की ऊंचाई कम से कम 11 फुट तक होनी ही चाहिए।

06. अपने घर को अनावश्यक नेगेटिव ऊर्जा या बुरी नजरों से कैसे बचाएं?

अपने घर के मुख्य दरवाजे जोकि बाहर की तरफ खुलता है उस पर एक मध्यम आकार का चौकोर दर्पण आप लगा लीजिए और अशोक वृक्ष के पत्तों का तोरण भी आप लगाकर रखिए।

– गुरु सत्यराम

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Should Ganesha and Lakshmi be placed on the main door of the house? (Hindi & English)

Many energies keep coming and going in our homes. These include both good and bad energies. We all want that only positive energies should enter our homes. For this, we completely depend on the main door of our house because the main entrance is our protector in a way. That is why we always use such measures which can make our main door very strong.

Door frames play an important role in strengthening the main wooden door. Door frames have so much strength that when any member of the family crosses it, the negative energy remains outside. But this was seen more in earlier houses. If we look at today’s construction, door frames have almost disappeared from the houses. Now only door frames are left in the name of door frames. Now people have started using silver wire in its place. This is also correct because the nature of silver metal is such that it cuts off any negative energy immediately.

Now in the present era, people give place to Ganesh-Lakshmi outside the main door of their house. Their sentiments are very pure but we also have to understand here that if you have given place to any deity outside the main door, then you should know very well that it is very important for that particular deity to be the doorkeeper. Now neither Lakshmiji is the doorkeeper nor Ganeshji. Before Ganeshji’s head was cut off, he was definitely a gatekeeper, but when he got a new head by the grace of Shiva, this form of his did not become a gatekeeper anywhere. Let us try to understand this topic more deeply through some questions.

01. Should Ganesha-Lakshmi be placed on the main door of the house?

Lord Ganesha and Goddess Mahalakshmi should never be placed on the main door which opens outside.

02. Can Lord Ganesha and Goddess Mahalakshmi be placed inside the house?

Yes, you can place Lord Ganesha and Goddess Mahalakshmi on the main door which opens inside.

03. Is there any significance of any specific direction with Lord Ganesha and Goddess Mahalakshmi?

Gods are never tied to any direction. Just keep in mind that Lord Ganesha should be on your right side and Goddess Mahalakshmi should be on your left side.

04. Whom is it appropriate and best to place on the main door of the house?

On the upper wall of the main door of the house which opens towards outside, place Panchmukhi Hanumanji or Panchmukhi Ganeshji in a sitting position according to your faith.

05. What color should be on the main door of the house and what should be the height of the main door and the inner walls?

It is best to have white or any light color on the main door of the house. The height of the main door of the house should be at least 7 feet and the height of the inner walls should be at least 11 feet.

06. How to protect your house from unnecessary negative energy or evil eyes?

Put a medium-sized square mirror on the main door of your house which opens towards outside and also keep a garland of Ashoka tree leaves.

– Guru Satyaram

क्या स्त्रियां भी श्रीहनुमान चालीसा का पाठ कर सकती हैं?(Hindi & English)

क्या स्त्रियां भी श्रीहनुमान चालीसा का पाठ कर सकती हैं?(Hindi & English)

श्री हनुमान चालीसा: एक संक्षेप विवरण

श्री हनुमान चालीसा अवधी भाषा में लिखी गई एक विशिष्ट काव्यात्मक कृति है। इस भक्ति रस से पूर्ण कृति में भगवान श्री रामचन्द्रजी के परम एवम महान भक्त श्रीहनुमान जी के गुणों, कार्यों एवम सेवा भाव का चालीस चौपाइयों के द्वारा वर्णन किया गया है। इसके रचयिता भगवान श्रीरामचन्द्रजी महाराज के अनन्य भक्त श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी हैं।

श्री गोस्वामी तुलसीदासजी: जीवन परिचय

हर वर्ष उत्तम सावन मास के शुभ शुक्ल पक्ष की श्रेष्ठ सातवीं तिथि पर श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी की जयंती हम सभी भक्तजन मनाते हैं। श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म संवत् 1554 में उत्तर प्रदेश के पवित्र चित्रकूट जिले के राजापुर गांव में हुआ था। इसी गांव में ही श्रीरामचरित मानस मंदिर है, जहां श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी ने यह ग्रंथ मात्र 966 दिनों में लिखा था। श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी संवत्‌ 1680 में इस मानव देह को त्यागते हुए प्रभु श्रीरामचंद्रजी महाराज के पावन चरणों की सेवा में विलीन हो गए थे।

श्री गोस्वामी तुलसीदासजी: एक विशिष्ट पूजनीय भक्त

यह भी कहा जाता है कि अपने जन्म के तुरंत बाद भी श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी रोए नहीं थे अपितु स्वाभाविक रोने के स्थान पर उनके श्रीमुख से भगवान श्रीसांब सदाशिव का परम प्रिय शब्द ‘राम’ निकला था। इस ईश्वरीय लीला के कारण ही बचपन में श्रीगोस्वामी तुलसीदासज़ी का नाम रामबोला था। ऐसा भी भक्तों के द्वारा कहा जाता है कि जन्म से ही श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी के बत्तीस दांत थे।

श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी का जीवन

श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी के जन्म के कुछ समय पश्चात ही इनकी माताश्री हुलसी देवी का निधन हो गया था। इनके पिताश्री का नाम श्रीआत्माराम था। अपने बचपन से ही श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी(बालक रामबोला) संतों एवम विद्वानों की शरण में रहने लग गए थे। कुछ समय पश्चात ही बाबा श्री नरहरी जी ने इन्हें तुलसीदास नाम दिया था। बाबा।श्री नरहरी जी को श्री गोस्वामी तुलसीदासजी का गुरु माना जाता है। तुलसीदासजी की शादी देवी रत्नावली से हुई थी। विवाह के कुछ समय बाद ही वे अपनी धर्मपत्नी पत्नी से दूर हो गए थे और प्रभु श्रीरामजी की भक्ति में लीन हो गए।

श्री गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने 111 वर्ष के जीवन में कई अनुपम ग्रंथों की रचना की थी। इनमें श्रीरामचरित मानसजी सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस अलौकिक श्रीग्रंथ के सुंदरकांड का पाठ कई भक्तों की नियमित दिनचर्या है। विनय पत्रिका और श्रीहनुमान चालीसा की रचना भी श्रीगोस्वामी तुलसीदास ने की थी।

श्री हनुमान चालीसा को लिखने हेतु प्रेरणा स्रोत

भगवान श्री महादेवजी के कहने पर लिखा गया था श्रीरामचरित मानस। ऐसा माना जाता है कि श्री गोस्वामी तुलसीदासजी को स्वपन के माध्यम में भगवान शिव ने आदेश दिया था कि आप अपनी मातृ भाषा में काव्य रचना करो। मेरे श्री आशीष से आपकी रचना तृत्य वेद श्रीसामवेद की तरह ही फलवती होगी। ये स्वपन देखने के पश्चात तुलसीदाजी जाग गए। इसके कुछ समय पश्चात संवत् 1631 को श्रीरामनवमी के शुभ दिन वैसा ही योग बना जैसा त्रेतायुग में प्रभु श्रीरामचंद्रजी के शुभ अवतरण के समय था। उस दिन प्रातः समय तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस जी को लिखना प्रारंभ किया था।

श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी ने मात्र 966 दिन में लिखा था

श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी ने संवत् 1631 में श्रीरामचरित मानसजी लिखनी आरंभ की थी। संवत् 1633 के अगहन महीने के शुक्लपक्ष की शुभ पंचमी तिथि पर यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया था। अर्थात इसे पूर्ण करने में पूरे 2 वर्ष, 7 माह और 26 दिनों का समय लगा था। यह भी कहा जाता है कि रचना पूर्ण होते ही श्रीतुलसीदासजी ने सबसे पहले ये ग्रंथ शिवजी को अर्पित किया था। फिर इसे लेकर श्रीतुलसीदासजी काशी गए और यह पवित्र ग्रंथ भगवान श्री विश्वनाथजी के मंदिर में रख दिया था। यह भी माना जाता है कि अगले दिन प्रातः समय उस पवित्र ग्रंथ पर “सत्यं शिवं सुंदरम” लिखा हुआ था।

मान्यता: श्रीराम और हनुमानजी ने दिए थे तुलसीदासजी को दर्शन

ऐसी मान्यता है कि श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम और उनके परम भक्त श्रीहनुमानजी ने दर्शन दिए थे। जब श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी तीर्थ यात्रा पर काशी गए तो लगातार राम नाम जप करते ही रहे। इसके बाद श्रीहनुमानजी ने उन्हें दर्शन दिए थे। इसके बाद उन्होंने श्रीहनुमानजी से भगवान श्रीजी के शुभ दर्शनों हेतु प्रार्थना करी थी। श्रीहनुमानजी ने तुलसीदाजी के बताया था कि आपको चित्रकूट में श्रीराम के दर्शन प्राप्त होंगे। इसके बाद मौनी अमावस्या पर्व पर श्रीगोस्वामी तुलसीदासजी को चित्रकूट में भगवान श्रीरामचंद्र जी के दर्शन हुए थे।

श्री हनुमान चालीसा से संबंधित कुछ विशिष्ट प्रश्न एवम उत्तर।

1. हनुमान चालीसा का पाठ हमें कितनी बार करना चाहिए?

श्रीहनुमान चालीसा के पाठ का सर्वोत्तम फल प्राप्त करने के लिए दैनिक शुद्धि पश्चात केवल तांब्र पात्र के जल को ग्रहण करके लगातार 108 पाठ करें।

2. श्रीहनुमान चालीसा के संकल्पित पाठ का उद्यापन कैसे करना चाहिए?

11 बार श्रीहनुमान चालीसा का सूक्ष्म हवन करने के पश्चात मीठे का हनुमान मंदिर में भोग लगाएं और छोटे बच्चों, बंदरों, लंगूरों या किन्हीं भी पशु-पक्षिओं में बांटें।

3. संकल्पित पाठ पश्चात क्या नित्य भी हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए?

संकल्पित पाठ पश्चात नित्य 1/3/5/7/9/11 पाठ लगातार 108 दिन अवश्य करना चाहिए। इसके समापन पर किसी भी उद्यापन की आवश्यकता नहीं हैं।

4. संकल्पित श्रीहनुमान चालीसा का पाठ किस दिन से प्रारंभ करना शुभ रहेगा?

संकल्पित श्रीहनुमान चालीसा का पाठ सुबह की संध्या के समय मंगलवार, गुरुवार, शनिवार के दिन ही प्रारंभ करना अति शुभ और लाभकारी रहेगा।

5. क्या स्त्रियां भी संकल्पित या सामान्य रूप में श्रीहनुमान चालीसा का पाठ कर सकती हैं?

संकल्पित या सामान्य रूप में अपने सामान्य दिनों में स्त्रियां श्री हनुमान जी को परमेश्वर ब्रह्म रूप में या सदगुरु रूप में मानते हुए श्रीहनुमान चालीसा का पाठ अवश्य कर सकती हैं।

Guru SatyaRam
Guru SatyaRam

– गुरु सत्यराम

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Can women also recite Shri Hanuman Chalisa?(Hindi & English)

Shri Hanuman Chalisa: A Brief Description

Shri Hanuman Chalisa is a unique poetic work written in Awadhi language. In this devotional work, the qualities, works and service of Shri Hanuman, the supreme and great devotee of Lord Shri Ramchandraji, have been described through forty quatrains. Its author is Shri Goswami Tulsidas ji, an ardent devotee of Lord Shri Ramchandraji Maharaj.

Shri Goswami Tulsidasji: Biography

Every year, all of us devotees celebrate the birth anniversary of Shri Goswami Tulsidasji on the seventh day of the auspicious Shukla Paksha of the auspicious month of Sawan. Shri Goswami Tulsidasji was born in the year 1554 in Rajapur village of the holy Chitrakoot district of Uttar Pradesh. In this village itself is the Shri Ramcharit Manas temple, where Shri Goswami Tulsidasji wrote this book in just 966 days. Shri Goswami Tulsidasji left this human body in Samvat 1680 and merged in the service of the holy feet of Lord Shri Ramchandraji Maharaj.

Shri Goswami Tulsidasji: A special revered devotee

It is also said that even immediately after his birth, Shri Goswami Tulsidasji did not cry, but instead of natural crying, the most beloved word of Lord Shri Samb Sadashiv, ‘Ram’ came out of his mouth. Due to this divine play, Shri Goswami Tulsidasji’s name in childhood was Rambola. It is also said by devotees that Shri Goswami Tulsidasji had thirty-two teeth from birth.

Life of Shri Goswami Tulsidasji

Shortly after the birth of Shri Goswami Tulsidasji, his mother Hulsi Devi died. His father’s name was Shri Atmaram. From his childhood itself, Shri Goswami Tulsidasji (child Rambola) started living under the shelter of saints and scholars. After some time Baba Shri Narhari Ji gave him the name Tulsidas. Baba Shri Narhari Ji is considered to be the Guru of Shri Goswami Tulsidas Ji. Tulsidas Ji was married to Devi Ratnavali. Shortly after the marriage, he got separated from his wife and got absorbed in the devotion of Lord Shri Ram Ji.

Shri Goswami Tulsidas Ji had written many unique scriptures in his 111 years of life. Among these Shri Ramcharit Manas Ji is the most famous. Reading the Sundarkand of this divine scripture is a regular routine of many devotees. Vinay Patrika and Shri Hanuman Chalisa were also written by Shri Goswami Tulsidas.

Source of inspiration for writing Shri Hanuman Chalisa

Shri Ramcharit Manas was written at the behest of Lord Shri Mahadevji. It is believed that Lord Shiva had ordered Shri Goswami Tulsidasji through a dream to compose poetry in his mother tongue. With my blessings, your composition will be as fruitful as the Tritya Veda Shri Samveda. Tulsidasji woke up after seeing this dream. Some time later, on the auspicious day of Shri Ramnavami in Samvat 1631, the same situation was created as was there during the auspicious incarnation of Lord Shri Ramchandraji in Treta Yug. Tulsidasji started writing Shri Ramcharitmanas in the morning on that day.

Shri Goswami Tulsidasji wrote it in just 966 days

Shri Goswami Tulsidasji started writing Shri Ramcharit Manasji in Samvat 1631. This holy book was completed on the auspicious Panchami date of Shukla Paksha of the month of Aghan in Samvat 1633. That is, it took 2 years, 7 months and 26 days to complete it. It is also said that as soon as the composition was completed, Tulsidasji first offered this book to Lord Shiva. Then Tulsidasji went to Kashi with it and placed this holy book in the temple of Lord Vishwanathji. It is also believed that the next day in the morning, “Satyam Shivam Sundaram” was written on that holy book.

Belief: Shri Ram and Hanumanji had given darshan to Tulsidasji

It is believed that Lord Shri Ram and his supreme devotee Shri Hanumanji had given darshan to Shri Goswami Tulsidasji. When Shri Goswami Tulsidasji went to Kashi on pilgrimage, he kept chanting the name of Ram continuously. After this, Shri Hanumanji gave him darshan. After this, he prayed to Shri Hanumanji for the auspicious darshan of Lord Shreeji. Shri Hanumanji had told Tulsidasji that you will get the darshan of Shri Ram in Chitrakoot. After this, on the occasion of Mauni Amavasya festival, Sri Goswami Tulsidasji had the darshan of Lord Shri Ramchandra in Chitrakoot.

Some specific questions and answers related to Shri Hanuman Chalisa.

1. How many times should we recite Hanuman Chalisa?

To get the best results of reciting Shri Hanuman Chalisa, after daily purification, take only water from a copper vessel and recite it 108 times continuously.

2. How should the Udyaapan of Sankalpit Paath of Shri Hanuman Chalisa be done?

After performing subtle havan of Shri Hanuman Chalisa 11 times, offer sweets in Hanuman temple and distribute it among small children, monkeys, langurs or any animals and birds.

3. Should Hanuman Chalisa be recited daily after Sankalpit Paath?

After Sankalpit Paath, 1/3/5/7/9/11 recitations should be done daily for 108 days continuously. There is no need for any Udyaapan on its completion.

4. From which day will it be auspicious to start the recitation of Sankalpit Shri Hanuman Chalisa?

It will be very auspicious and beneficial to start the recitation of Sankalpit Shree Hanuman Chalisa in the morning and evening on Tuesday, Thursday and Saturday.

5. Can women also recite Shree Hanuman Chalisa in Sankalpit or normal form?

Women can certainly recite Shree Hanuman Chalisa in Sankalpit or normal form on their normal days by considering Shree Hanuman Ji as Parameshwar Brahma or as Sadguru.

Guru SatyaRam
Guru SatyaRam

-Guru SatyaRam

हमारे देश का नाम “भारत” ही क्यों हैं?(Hindi & English)

हमारे देश का नाम “भारत” ही क्यों हैं?(Hindi & English)

हमारे प्यारे देश के नाम भारत में,”भारत” शब्द के उद्भव के कई कारण बताये गए हैं। “भा” संस्कृत में ज्ञान का द्योतक है। जो ज्ञान में रत है वह भारत कहलाता है। हमारे देश में प्रारम्भ से ही ज्ञान की खोज और “अज्ञात” के प्रति शोध-अनुसन्धान की प्रथा रही है। वस्तुतः हमारा देश ज्ञानियों और ऋषि-मुनियों का देश है। जिनकी प्रकांड मेधा से भारत सदा से ही “विश्व” गुरू के पद पर शोभित रहा है। जिनके ज्ञान के प्रकाश से हमारी भारतीय संस्कृति जगमगाती रही है।

हमारी भारतीय संस्कृति में तीन भरत हुए हैं। पहले हुए हैं जड़ भरत जिन्होंने रहूगन को ज्ञान दिया था। वे ज्ञान के प्रतीक एवं ज्ञान योग के सूचक हैं।

दूसरे भरत हुए हैं इक्ष्वाकु वंश के सम्राट दशरथ जी के पुत्र भरत, जिन्होंने अपना सर्वस्व प्रभु श्रीराम जी की भक्ति में अर्पित कर दिया। वे भक्ति की प्रतिमूर्ति हैं अतः वे भक्ति योग के द्योतक हैं।

तीसरे भरत हुए थे देवी शकुंतला एवं श्री चन्द्रवंशी दुष्यंत के पुत्र भरत, जिन्होंने अपने पराक्रम से पूरे विश्व पर विजय पायी थी। वे कर्म पर विश्वास रखते थे इसलिए वे कर्मयोग के प्रवर्तक हैं।

हमारे इस प्यारे देश का नाम भारत तीनो के सामंजस्य से हुआ है। अर्थात हमारा देश कर्म योग, भक्ति योग एवं ज्ञान योग का मिश्रण है जो विश्व में अन्य किसी भी देश को प्राप्त नहीं है।

भारत देश की मिटटी में एक सौंधी सुगन्ध होती है ,वह सुगन्ध किसी और देश में नही पाई जाती है। यह खुशबु ज्ञान की है, यह सुगन्ध हजारों वर्षों से चली आ रही हमारी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत की है।

हमें गर्व है कि हम भारत देश के वासी हैं। हम भारतीय हैं। इंडिया शब्द अंग्रेजों(ब्रिटिश) का दिया हुआ है जोकि पूर्णतः केवल गुलामी का ही सूचक है। हिंदुस्तान भी विदेशियों की देन है। हमें इंडिया एवं हिंदुस्तान छोड़ कर भारत को अपनाना होगा।आइए हम संकल्प करें कि हम सभी देशवासी केवल भारतीय बनें, इंडियन नहीं। जय भारत।

– एस्ट्रो ऋचा श्रीवास्तव

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Why is our country named “Bharat”?(Hindi & English)

There are many reasons given for the origin of the word “Bharat” in the name of our beloved country, Bharat. “Bha” in Sanskrit signifies knowledge. One who is absorbed in knowledge is called Bharat. In our country, there has been a tradition of seeking knowledge and research on the “unknown” since the beginning. In fact, our country is a country of learned people and sages. Due to their immense intellect, India has always been adorned with the position of “world” guru. Our Indian culture has been shining with the light of their knowledge.

There have been three Bharats in our Indian culture. The first was Jad Bharat who imparted knowledge to Rahugan. He is the symbol of knowledge and the indicator of Gyan Yoga.

The second Bharat was Bharat, son of Emperor Dasharath of Ikshwaku dynasty, who dedicated his entire being to the devotion of Lord Shri Ram. He is the embodiment of devotion, hence he is the indicator of Bhakti Yoga.

The third Bharat was the son of Goddess Shakuntala and Shri Chandravanshi Dushyant, who conquered the whole world with his valour. He believed in karma, hence he is the originator of Karma Yoga.

The name of our beloved country Bharat is derived from the harmony of all three. That is, our country is a mixture of Karma Yoga, Bhakti Yoga and Gyan Yoga, which no other country in the world has.

The soil of India has a sweet fragrance, that fragrance is not found in any other country. This fragrance is of knowledge, this fragrance is of our glorious cultural heritage that has been going on for thousands of years.

We are proud that we are residents of India. We are Indians. The word India has been given by the British, which is completely indicative of slavery. Hindustan is also a gift of foreigners. We have to leave India and Hindustan and adopt Bharat. Let us pledge that all of us countrymen should become only Indians, not Indians. Jai Bharat.

– Astro Richa Shrivastava

क्या होते हैं स्मार्त और वैष्णव?(Hindi & English)

आइए जानते हैं क्या होते हैं स्मार्त और वैष्णव??(Hindi & English)

प्रायः आप लोगों ने पंचांग, कैलेंडरों आदि में किसी पर्व(त्योहार) के व्रत, पूजन, आदि के सम्बंध में दो तिथियां देखी होंगी। एक वैष्णव लोगों के लिए, दूसरी तिथि स्मार्त लोगों के लिए। तो आइए, जानते हैं, कौन हैं ये वैष्णव और स्मार्त ?

स्मार्त

वेद, पुराण, श्रुति- स्मृति, को मानने वाले चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), गायत्री और पंच देवों, देवियों, देवताओं को मानने वाले ये सभी आस्तिक लोग स्मार्त कहलाते हैं। साधारण शब्दो मे कहा जाए तो आम सनातनी हिन्दू जनता जो अपनी गृहस्थी में रहते हुए ही अपने धर्म का पालन करती जो। इन लोगों को स्मार्तीय तिथियों में ही व्रत, उपवास, दान, यम, नियम करना चाहिए।

वैष्णव

वे धर्मपरायण लोग, जिन्होंने किसी प्रतिष्ठित वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु से दीक्षा ग्रहण की हो, गले में श्री गुरुदेव द्वारा दी गई कंठी धारण की हो, तथा मस्तक एवं गले पर श्रीखंड चंदन या गोपी चंदन के तिलक, त्रिपुंड आदि के चिन्ह धारण करते हों, बिना लहसुन प्याज़ के शुद्ध शाकाहारी भोजन करते हों, ऐसे भक्त जन वैष्णव कहलाते हैं।

वैष्णव जन के पर्व त्योहार की तिथि, स्मार्त जन के एक दिन बाद पड़ती है।

हमारे ग्रंथो में तिथि, मुहूर्त अनुसार ही व्रत, पूजन, उपवास, दान आदि का महत्व है। अतः दी गयी स्मार्त और वैष्णव तिथि अनुसार ही उपवास त्योंहार आदि करें तभी सुफल प्राप्त होगा।

– ज्योतिषाचार्य ऋचा श्रीवास्तव

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Let’s know what are Smarta and Vaishnava?(Hindi & English)

Usually you must have seen two dates in Panchang, calendars etc. related to fasting, worship etc. of any festival. One date is for Vaishnava people, the other date is for Smarta people. So let’s know, who are these Vaishnava and Smarta?

Smarta

All the four Varnas (Brahmin, Kshatriya, Vaishya, Shudra) who believe in Vedas, Puranas, Shruti-Smriti, all the believers who believe in Gayatri and Panch Devas, Goddesses, Gods are called Smarta. In simple words, the common Sanatani Hindu people who follow their religion while living in their household. These people should observe fasts, upvaas, daan, yama, niyam only on Smarta dates.

Vaishnav

Those religious people who have taken initiation from a Guru of a reputed Vaishnav Sect, wear the Kanthi given by Shri Gurudev around their neck, and wear the marks of Tilak, Tripund etc. of Shrikhand Chandan or Gopi Chandan on their forehead and neck, eat pure vegetarian food without garlic and onion, such devotees are called Vaishnavs.

The date of festivals of Vaishnav people falls one day after Smart people.

In our scriptures, fasting, worship, fasting, donation etc. are important according to the date and auspicious time. Therefore, observe fasts, festivals etc. according to the given Smart and Vaishnav dates. Only then will you get good results.

– Astrologer Richa Shrivastava

गुरुतत्व और गुरु शरीर में क्या अंतर होता है?(Hindi & English)

गुरुतत्व और गुरु शरीर में क्या अंतर होता है?(Hindi & English)

 

01. गुरुतत्व का मूल अर्थ क्या है?
02. गुरु शरीर के माध्यम से गुरुतत्व की कृपा कैसे प्राप्त करें?
03. घर पर रहकर ही गुरुतत्व से कैसे जुडें?
04. गुरुतत्व से जुड़कर मन्त्र दीक्षा कैसे प्राप्त करें?
05. गुरु का शरीर समाधि धारण कर लें तो आगे शिष्य का क्या धर्म है?

01. गुरुतत्व का मूल अर्थ क्या है?

इस सम्पूर्ण सृष्टि में जो ईश्वरीय तत्व व्याप्त है जब वही परम तत्व हमें किसी शरीर, भावना, घटना, स्मृति या शरीर के माध्यम से हमें कुछ भी सिखाने का प्रयास करता है तो वहां पर गुरुतत्व का ही भाव किया जाता है। अर्थात आप जो कुछ भी सीख रहें हैं उसको सिखाना वाला गुरु का शरीर कहलायेगा और जो उस शरीर के माध्यम से आपको ज्ञान दे रहा है वह गुरुतत्व कहलायेगा।

02. गुरु शरीर के माध्यम से गुरुतत्व की कृपा कैसे प्राप्त करें?

एक सामान्य जातक के लिए ज्ञान के अभाव में केवल गुरु का शरीर ही सबकुछ होता है। लेकिन जब गुरुतत्व की कृपा से साधक इस ब्रह्म ज्ञान से एकाकार हो जाता हैं कि शरीर तो केवल एक माध्यम है ईश्वर के ही दूसरे रूप अर्थात गुरुतत्व से जुड़ने का। आगे बढ़ते हुए जातक को सदैव यही स्मरण रखना चाहिए कि गुरुतत्व ही मुझे सम्मुख गुरु शरीर के माध्यम से माया रुपी अज्ञानता से बाहर लाने का प्रयास कर रहें हैं। इसलिए जातक को गुरु शरीर के माध्यम से जो भी सन्देश चाहे वह मंत्र के रूप में, डांट के रूप में, प्रसाद के रूप में, प्रवचनों के रूप में, या उर्जा रूप में प्राप्त हो उसे ईश्वरीय प्रसाद मानते हुए सदैव धारण करे ही रहना चाहिए। इसी आधार पर कोई भी साधक गुरु शरीर के माध्यम से परमब्रह्म गुरुतत्व से जुड़ा रहेगा।

03. घर पर रहकर ही गुरुतत्व से कैसे जुडें?

यहाँ गुरुतत्व से जुड़ना अर्थात सीधे अर्थों में गुरु धारण करना रहेगा। इसके लिए मैं आपको अपनी साधना के अनुभव आधार पर कुछ सरल विधि बताता हूँ। आप श्रीमद्भागवत गीताजी को लेकर आइये। गीताजी को प्रणाम कीजिये, उन्हें आसन दीजिये और ईश्वर रुपी गुरु तत्व का आह्वाहन करते हुए मानसिक रूप से प्रार्थना कीजिये कि हे परम तत्व मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि श्री गीताजी शास्त्र के माध्यम से आप मुझे साधक के रूप में स्वीकार कीजिये और श्री गीताजी के वचनों के माध्यम से मेरा मार्गदर्शन कीजिये। श्री गीताजी में 18 अध्याय हैं, अगर जातक नित्य एक अध्याय को पढ़ते हुए अपने दिन की शुरुआत करेगा तो धीरे-धीरे अपने गुरुतत्व की कृपा से साधक चेतना के स्तर आधार पर ऊँचा उठाना प्रारम्भ कर देगा। मात्र ऐसा करते रहने से ही जातक उतम ब्रह्मविद्या के मूल बीज को अपने अनाहत में स्थायी रूप से ग्रहण कर लेगा।

04. गुरु तत्व से जुड़कर मन्त्र दीक्षा कैसे प्राप्त करें?

जब एक साधक अपने गुरुतत्व से जुड़ना सीख जाता है तो उसके लिए गुरुतत्व से आने वाली प्रत्येक क्रिया ही उसके लिए एक मंत्र की भांति ही मूल्यवान बनी रहती है, अर्थात जो कुछ भी गुरुतत्व की क्रिया सम्मुख आती है तो जातक उसी क्रिया को मंत्र रुपी दीक्षा मानकर ग्रहण कर लेता है। उदाहरण समझिये की साधक सम्मुख गुरु शरीर में जब गुरु तत्व से जुड़ जाता है तो जो कुछ भी गुरु मुख से निकलेगा साधक उसे ही मंत्र रूप मानकर ग्रहण कर लेगा तथा उस आदेश या वचन रुपी मंत्री की पालना ही उसके लिए दीक्षा होगी। अर्थात यहाँ गुरुतत्व वचनों की पालना ही मंत्र दीक्षा कहलाएगी।

05. गुरु का शरीर समाधि धारण करलें तो आगे शिष्य का क्या धर्म है?

जब जातक अपने गुरुतत्व से जुड़ जाता है तो गुरु शरीर द्वारा दिखाए गए प्रकाश मार्ग पर ही अग्रसर बना रहता है। अर्थात अब ईश्वर इच्छा से गुरु का शरीर समाधि की अवस्था धारण कर लें तो अब साधक के लिए गुरुतत्व की कृपा से गुरु शरीर की नवीन अवस्था ही गुरु शरीर रहेगी, अर्थात अब गुरुतत्व गुरु शरीर से नहीं अपितु समाधि की अवस्था ही गुरु शरीर की स्मृति रूप में विद्यमान रहेगी। साधक जब अपने गुरुतत्व से जुड़ जाता है तो वह अपने गुरु से सदा के लिए एकाकार ही हो जाता है। गुरुतत्व ही परमतत्व का गुरुरूप है और तत्व सदैव विद्यमान रहता है।

Guru SatyaRam
Guru SatyaRam

-Guru SatyaRam

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What is the difference between Guru Element and Guru body?(Hindi & English)

01. What is the basic meaning of Guru Element(Guru Tattva)?

02. How to receive the grace of Guru Tattva through Guru body?

03. How to connect with Guru Tattva while staying at home?

04. How to attain Mantra initiation by connecting with Gurutattva?

05. If the Guru’s body attains Samadhi then what is the future religion of the disciple?

01. What is the basic meaning of Guru Element?

When the same supreme element which is prevalent in this entire creation tries to teach us anything through any body, emotion, event, memory or body, then the sense of gurutattva is expressed there. That is, whatever you are learning will be called the body of the Guru who is teaching you and the one who is giving you knowledge through that body will be called Gurutattva.

02. How to receive the grace of Guru Tattva through Guru body?

For an ordinary person, in the absence of knowledge, only the body of the Guru is everything. But when by the grace of Gurutattva, the seeker becomes united with this Brahma knowledge that the body is only a medium to connect with the other form of God i.e. Gurutattva. While moving forward, the person should always remember that Guru Tattva itself is trying to bring him out of the ignorance in the form of Maya through the Guru body in front of him. Therefore, whatever message the person receives through the Guru’s body in the form of mantra, in the form of scolding, in the form of prasad, in the form of discourses, or in the form of energy, he should always keep it as a divine offering, considering it as divine prasad. On this basis, any seeker will remain connected to the Supreme Brahman Guru Tattva through the Guru’s body.

03. How to connect with Guru Tattva while staying at home?

Here, connecting with Guru Tattva means adopting a Guru in the literal sense. For this, I will tell you some simple methods based on my experience of meditation. You bring Shrimad Bhagwat Geetaji. Salute Geetaji, give her seat and invoking the God-like Guru Tattva, mentally pray that O Supreme Tattva, I request you to accept me as a seeker through Shri Geetaji Shastra and receive the blessings of Shri Geetaji. Guide me through your words. There are 18 chapters in Shri Geetaji, if the person starts his day by reading one chapter daily, then gradually with the grace of his Guru Tatva, the seeker will start raising the level of consciousness.Only by doing this the person will permanently imbibe the basic seed of Uttam Brahmavidya in his Anahata.

04. How to get Mantra initiation by connecting with Guru element?

When a seeker learns to connect with his Guru Tattva, then for him every action coming from Guru Tattva remains valuable for him like a mantra, that is, whatever action of Guru Tattva comes in front of him, the person considers that action as initiation in the form of a mantra. Takes it for granted.For example, understand that when the seeker gets connected to the Guru element in his body in front of the Guru, then whatever comes out of the Guru’s mouth, the seeker will accept it as a mantra and following that order or word of the minister will be initiation for him. That is, here the observance of Gurutattva words will be called Mantra Diksha.

05. If the Guru’s body attains Samadhi then what is the future religion of the disciple?

When the person connects with his Guru Tattva, he continues to move forward on the path of light shown by the Guru body.That is, now if by God’s will the Guru’s body attains the state of Samadhi, then for the seeker, by the grace of the Guru Tattva, the new state of the Guru’s body will remain the Guru’s body, that is, now the Guru Tattva is not from the Guru’s body but the state of Samadhi itself is in the form of memory of the Guru’s body. Will exist in. When a seeker connects with his guru, he becomes one with his guru forever. Guru Tattva is the Guru form of Paramatattva and that Tattva always exists.

Guru SatyaRam
Guru SatyaRam

– Guru SatyaRam